जीवन का सर्वोच्च दान: रक्त, अंग, नेत्र और शरीरदान – क्या है और क्यों जरूरी है?

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दान – मानवता का श्रेष्ठ धर्म

रक्तदान, अंगदान, नेत्रदान, शरीरदान – जीवन को नया अर्थ देने वाले हर दान का स्वागत करें!

"जीवन को सार्थक बनाने वाले दान" 

दान भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसे 'परमार्थ' या 'परोपकार' के रूप में भी व्यापक रूप से जाना जाता है। दान न केवल जरूरतमंदों की सहायता का माध्यम है, बल्कि यह मनुष्य के आत्मिक और सामाजिक उत्थान का भी सशक्त साधन है। “दानं परमं धर्म:” अर्थात् दान करना सबसे बड़ा धर्म है—यह वाक्य हमारे संस्कारों का मूल रहा है। दान किसी एक व्यक्ति या वर्ग तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी है।  दान का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति में संवेदनशीलता, सहृदयता और परहित की भावना का विकास करना है। जब एक व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के अपने संसाधनों, समय, या ऊर्जा का अंश किसी अन्य को समर्पित करता है, तो उसमें न केवल उसके प्रति उत्तरदायित्व की भावना पैदा होती है, बल्कि समाज में 'साझेदारी' व 'एकता' की भावना भी मजबूत होती है। दान से समाज में मानवता, भाईचारे और समरसता का संचार होता है।  दान केवल आर्थिक संपत्ति देना ही नहीं, बल्कि सेवा, समय, प्रतिभा और ज्ञान की मदद से भी किया जा सकता है। रक्तदान, अंगदान, नेत्रदान या शरीरदान इस सेवा और विवेकशीलता के अनूठे उदाहरण हैं। समाज में कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं जब किसी को खून, अंग या नेत्रों की आवश्यकता होती है और वही जिंदगी और मौत का फर्क पैदा कर सकता है। इसी प्रकार शरीरदान चिकित्सा शिक्षा और शोध के लिए अत्यंत आवश्यक होता है।  दान करने से मनुष्य के भीतर एक आत्मिक संतोष उत्पन्न होता है एवं मानसिक शांति प्राप्त होती है। 'जो देता है उसके पास और आता है' — यह केवल कहावत नहीं, बल्कि जीवन का सत्य है। दान करने वाला समाज की नजरों में तो आदरणीय होता ही है, ईश्वर का भी प्रिय बन जाता है। वास्तविक दान वही है जिसमें किसी प्रकार की प्रसिद्धि या फल की इच्छा न हो, बल्कि केवल मानवता की सेवा की भावना हो। इसीलिए, जितना हो सके, हर व्यक्ति को अपने जीवनकाल में दान अवश्य करना चाहिए, क्योंकि दान से बड़ा कोई पुण्य नहीं और न ही समाज की सेवा का इससे श्रेष्ठ कोई माध्यम है। 

रक्तदान (Blood Donation)

रक्तदान एक ऐसा पुण्य और मानवता से जुड़ा कार्य है, जो प्रतिदिन हजारों जिंदगियों को बचाने का जरिया बनता है। चिकित्सा विज्ञान में यह सर्वविदित है कि किसी भी आपातकाल—जैसे दुर्घटना, ऑपरेशन, प्रसव या थैलेसीमिया, कैंसर इत्यादि गंभीर बीमारियों में मरीजों को रक्त की नितांत आवश्यकता पड़ती है। ऐसे समय में यदि रक्तदाता आगे आकर रक्तदान न करें, तो कई बार मरीज की जीवन-डोर टूट सकती है। इसीलिए, 'रक्तदान—महादान' कहा गया है।

रक्तदान न केवल पाने वाले व्यक्ति के लिए अमूल्य जीवनदान है, बल्कि इसके स्वास्थ्य लाभ रक्तदाता को भी मिलते हैं। नियमित या समय-समय पर रक्तदान करने से हृदय संबंधी बीमारियों की संभावना घटती है, खून पतला और साफ रहता है, आइरन की मात्रा संतुलित रहती है। साथ ही रक्तदान से रक्त की नई कोशिकाएँ बनती हैं, जिससे शरीर तरोताजा रहता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह एक प्रकार का आउटलेट भी है, जिससे शरीर में जमा दूषित खून बाहर निकल जाता है।

कई लोग रक्तदान को लेकर भ्रांतियों का शिकार होते हैं—जैसे रक्त देने से कमजोरी आएगी, या बार-बार देने से शरीर पर नकारात्मक असर होगा—जबकि ये पूर्णतः मिथक हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति साल में कम-से-कम तीन-चार बार रक्तदान कर सकता है। रक्तदान के लिए आयु, वजन और स्वास्थ्य की कुछ न्यूनतम शर्तों का ध्यान रखना होता है (उम्र 18-65 वर्ष, वजन 50 किलोग्राम वगैरह)। इंडिया में हर रोज़ हजारों यूनिट्स खून की जरूरत होती है, जबकि डोनर्स की संख्या अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में आगे आकर रक्तदान करना न केवल एक सामाजिक कर्तव्य है, बल्कि व्यक्ति के लिए गर्व की बात भी है।

रक्तदान समाज में एकता, सहयोग और संवेदनशीलता की मिसाल है। जब रक्तदाता अपनी पहचान, धर्म, जाति, लिंग या रिश्तों से ऊपर उठकर दान करता है, तो वह सच्चे अर्थों में मानवता का पोषण करता है। यही वजह है कि आज कई संस्थाएँ—'संकल्प सेवा' जैसी—रक्तदान कैंप, जागरूकता रैली और प्रेरणात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं में रक्तदान के प्रति जागृति पैदा कर रही हैं।

मोटे तौर पर रक्तदान केवल 'रक्त देना' नहीं, बल्कि 'जीवन देना' है। अगर हर सक्षम व्यक्ति साल में एक बार भी रक्तदान कर दे, तो देश में कभी भी खून की कमी नहीं होगी, किसी की मौत केवल इसलिए नहीं होगी कि 'रक्त समय पर नहीं मिला।' इसलिए, रक्तदान को अपनी जिम्मेदारी और मानवता के कर्तव्य के रूप में अपनाना चाहिए।

अंगदान (Organ Donation)

अंगदान जीवनदायिनी परंपरा है, जिसमें व्यक्ति मृत्यु के बाद अपने स्वस्थ अंग—जैसे दिल, किडनी, लीवर, फेफड़े, पैंक्रियास अथवा आंत—किसी जरूरतमंद को समर्पित करता है। यह दान उस व्यक्ति के लिए दोबारा जीवन पाने का सबसे बड़ा अवसर होता है, जो 'अंग-निष्क्रियता' के कारण रोग से जूझ रहा होता है। अंगदान मृत्यु के बाद किया जाता है तथा कुछ अंग, जैसे— किडनी या लिवर— कुछ मामलों में जीवित भी दान किए जा सकते हैं।

भारत में लाखों लोग हर साल ऐसे अंग कमजोर हो जाने या पूरी तरह फेल हो जाने के कारण अपनी जान गंवा देते हैं, जिनका इलाज अंग प्रत्यारोपण द्वारा संभव था। लेकिन अंगदान के प्रति जागरूकता व डोनर की कमी कारण अधिकांश को जीवन का वह दूसरा अवसर नहीं मिलता। अंगदान के माध्यम से एक डोनर अपने मृत्यु के बाद आठ-नौ लोगों को नया जीवन दे सकता है—यह मानव सेवा का सबसे बड़ा उदाहरण है।

अंगदान के लिए इच्छुक व्यक्ति को अपना संकल्प 'डोनर कार्ड' के रूप में परिवार को और संबद्ध संस्था को सूचित करना चाहिए। मृत्यु के पश्चात उसके स्वस्थ अंग अस्पताल में विशेष प्रक्रिया के तहत जरूरतमंद मरीजों को प्रत्यारोपित किए जाते हैं। अधिकतर मामलों में ब्रेन-डेड या कार्डियक मृत्यु (मस्तिष्क या हृदय की मृत्यु) के तुरंत बाद ही अंग सुरक्षित निकाले जाते हैं, ताकि उनका इस्तेमाल किया जा सके।

भारत सरकार और विभिन्न संस्थाएँ—जैसे NOTTO (National Organ and Tissue Transplant Organization)—अंगदान को बढ़ावा देने के लिए कई अभियान चला रही हैं। भारत में कानून के तहत अंगदान बिना किसी मुनाफे अथवा बदले में कुछ पाए जाने की आशा के बिना किया जाता है। इच्छुक व्यक्ति 18 वर्ष व इससे अधिक आयु का हो सकता है। सबसे अहम बात यह है कि अंगदान केवल एक साधारण दान नहीं, बल्कि जीते-जी या मृत्यु के बाद भी 'अमरता' प्राप्त करने जैसा पुण्य है, क्योंकि इससे न केवल एक व्यक्ति, बल्कि अनेक परिवारों की खुशियों और उम्मीदों को जिंदगी मिलती है।

अंगदान से जुड़ी कई भ्रांतियाँ व डर समाज में व्याप्त हैं—जैसे मृत्यु के बाद शरीर से छेड़छाड़, धार्मिक भावनाएँ या परिवार की लाज—जबकि सच्चाई यह है कि अंगदान से पूजा-पाठ या अंतिम संस्कार में कोई बाधा नहीं आती। आज आवश्यकता है कि समाज में जागरूकता फैलाई जाये, जिससे अधिकाधिक लोग अंगदान के संकल्प के लिए सामने आएँ और इस 'जीवनदाता' परंपरा को बढ़ावा दें।

नेत्रदान (Eye Donation)

नेत्रदान दुनिया का सबसे सुंदर दान है, जिसे “अंधकार से उजाले की ओर” ले जाने वाला पुनीत कार्य माना जाता है। नेत्रदान के द्वारा किसी नेत्रहीन व्यक्ति को देखने की रोशनी मिलती है और उसके जीवन के मायने ही बदल जाते हैं। एक व्यक्ति के नेत्रदान से दो अंधों को दृष्टिदान दिया जा सकता है, जिससे न केवल उनकी जिंदगी बदलती है, बल्कि उनके परिवार की भी खुशी लौट आती है।

भारत में हर वर्ष लाखों लोग कॉर्निया (नेत्र की पारदर्शी परत) की खराबी के कारण अंधेपन का शिकार हो जाते हैं, जिनका इलाज सिर्फ नेत्र प्रत्यारोपण द्वारा ही संभव है। विडंबना है कि भारत में जितनी आवश्यकता नेत्रदान की है, उतनी संख्या में डोनर उपलब्ध नहीं हैं। नेत्रदान व्यक्ति के मौत के बाद किया जाता है; रिसर्च के अनुसार, मृत्यु के 6 से 8 घंटे के भीतर नेत्रों को सुरक्षित निकालकर आई-बैंक में संरक्षित किया जा सकता है। इससे नेत्र रोहिणी (कॉर्निया) निकालकर जरूरतमंद मरीज को प्रत्यारोपित की जाती है।

नेत्रदान की प्रक्रिया बिल्कुल सुरक्षित, सरल और धार्मिक एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों के खिलाफ नहीं है। परिजन बिना किसी डर एवं झिझक के नेत्रदाता की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए यह महान कार्य कर सकते हैं। यह गुप्त रूप से होता है, मृतक के चेहरे या शरीर पर किसी प्रकार का बड़ा परिवर्तन या नुकसान नहीं होता। अंतिम संस्कार भी रीति-रिवाज के अनुसार किया जा सकता है।

समाज में नेत्रदान को लेकर कई मिथक प्रचलित हैं— जैसे ‘नेत्रदान करा दूं तो अगला जन्म अंधे का होगा’, या 'अंतिम संस्कार में बाधा आएगी' आदि— जो पूरी तरह निराधार हैं। नेत्रदान न केवल पवित्र दान है, बल्कि यह अंधकार में जीवन जी रहे असंख्य लोगों को नया भविष्य देता है। कई लोग जागरूकता के अभाव में नेत्रदान का संकल्प नहीं कर पाते, जबकि सच यह है कि सभी स्वस्थ व्यक्ति अपने मृत्यु के बाद नेत्रदान कर सकते हैं। इसके लिए किसी संगठन या आई-बैंक से संकल्प पत्र भर सकते हैं।

नेत्रदान अभियान के माध्यम से स्कूल, कॉलेज, सामाजिक और धार्मिक मंचों पर जागरूकता फैलायी जाती है ताकि लोग आगे आकर इस पुण्य कार्य में भाग लें। नेत्रदान सिर्फ एक अंगदान नहीं, बल्कि जीवन को नया अर्थ और समाज को नई दिशा देने का कर्तव्य है।

शरीरदान (Body Donation)

शरीरदान जीवन की अंतिम यात्रा में मानवता के प्रति सबसे श्रेष्ठ दान है। मृत्यु के बाद अपने शरीर को मेडिकल शिक्षा, अनुसंधान एवं विज्ञान के क्षेत्र में दान करना, करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य की राह आसान कर देता है। शरीरदान के माध्यम से मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टर बनने वाले विद्यार्थियों को सच्ची, व्यावहारिक शिक्षा मिलती है और शोध में नई खोजों के द्वार खुलते हैं।

मेडिकल साइंस में ‘कैडावर’ (मृत शरीर) की व्यवस्था न हो तो छात्रों को संपूर्ण जानकारी, ऑपरेशन या अनुसंधान के अवसर नहीं मिलते। आज भी भारत में हजारों मेडिकल कॉलेजों में आवश्यकता अनुसार शरीर उपलब्ध नहीं हो पाते। इसी वजह से डॉक्टरों की शिक्षा अधूरी रह जाती है। यदि समाज में लोग जागरूक होकर अपना शरीर दान करें, तो मेडिकल साक्षरता और स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर कई गुना बेहतर हो सकता है।

शरीरदान के लिए इच्छुक व्यक्ति विधिवत संकल्प-पत्र भरकर परिवार, मेडिकल कॉलेज या सामाजिक संस्था को जानकारी दे सकते हैं। निधन के तुरंत बाद संकल्प के अनुसार कॉलेज या अस्पताल को सूचना देकर उनकी विधिवत टीम शरीर प्राप्त कर सकती है। इस प्रक्रिया में संपूर्ण गरिमा, गोपनीयता एवं श्रद्धा रखी जाती है। अंतिम संस्कार के सभी रीति-रिवाज भी अंतिम चरण में पूरे सम्मान के साथ किए जाते हैं।

शरीरदान से जुड़ी भ्रांतियां भी समाज में हैं—जैसे शरीरदान से अगले जन्म में पुनर्जन्म नहीं मिलेगा, या परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आएगी इत्यादि—जबकि यह केवल अंधविश्वास हैं। खास बात यह है कि शरीरदान निःशुल्क एवं निस्वार्थ भाव से किया जाता है; बदले में कोई धन या सुविधा नहीं मिलती। यह दान जीवन के अंत में भी समाज सेवा और युवाओं को सही दिशा देने का अमूल्य साधन है।

आज आवश्यकता है कि समाज में शरीरदान के महत्व को समझाया जाए और परिवार, धर्मगुरु व शिक्षा संस्थान मिल-जुलकर लोगों को इसके लिए प्रेरित करें। चिकित्सा और मानवता के क्षेत्र में शरीरदान का योगदान सबसे बड़ा और स्थायी है। इससे समाज में न केवल स्वास्थ्य स्तर सुधरता है, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण, संवेदनशीलता और करुणा की भावना भी मजबूत होती है।

इसलिए, “मरकर भी अमर रहना” है—तो शरीरदान जैसा महान दान अवश्य करना चाहिए। यह सच्ची मानव सेवा और अमरता की राह है।

अब संकल्प लें – दान करें, समाज में नई दिशा लाएँ!

अधिक जानकारी / पंजीकरण

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