चार दशक पहले ........ स्कूल की ओर पहला क़दम
मझौली - हिमाचल प्रदेश की ठियोग तहसील की ग्राम पंचायत सरिवन के अंतर्गत ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ मेरा छोटा-सा खूबसूरत गाँव है। यह केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं है, बल्कि मेरे जीवन की जड़ों का केंद्र है।
इसी मझौली की मिट्टी में मेरे बचपन की स्मृतियाँ सांस लेती हैं...इसी की हवाओं में मेरी मासूम हँसी, शरारते, स्मृतियां और मेरी अंतरात्मा की गूंज कहीं विद्यमान है ... आज भी इसी गांव में जब भी जाता हूँ। वो सभी पुरानी यादे आज भी यहीं कहीं ठहरी हुई मिलती है — वो सेब के बागानों के बीच, उस पुराने घर की खिड़की, जहां से पहाड़ों की चोटी पर उतरती धूप को निहारा करता था। यह सिर्फ मेरा पैतृक स्थान नहीं, बल्कि मेरे संस्कारों का पहला अध्याय है।...इस गाँव में सिर्फ मेरा अतीत नहीं बसता है —बल्कि मेरी सोच, मेरा चरित्र भी यहीं से आकार लेता है। और जिस स्कूल का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, वो है – प्राथमिक पाठशाला किहरी। जब भी बचपन की गलियों में यादों की साँझ उतरती है, तब सबसे पहली स्मृति उसी स्कूल की आती है।

गाँव से स्कूल तक का रास्ता नीचे की ढलान से होकर जाता है। वो भी एकदम असली पहाड़ी रास्ता — कहीं कच्चा, कहीं संकरा, और चारों ओर सेब के पुराने बागों के झुरमुटों से घिरा हुआ। उस वक्त हमारे गाँव में काष्ठ और पत्थर से बने पुराने घर थे — पत्थर के स्लेटों की छत, लकड़ी की सीढ़ियाँ, और घरों में जलते चूल्हों से उठता धुआँ।... "उस समय शायद हमारे गाँव-घर की आर्थिकी इतनी समृद्ध नहीं थी, जितनी आज के समय में है।" लेकिन आज की अपेक्षा हमारे गाँव में स्नेह, प्रेम, दया, आत्मीयता और अपनेपन की दौलत कहीं अधिक थी। उस समय लोगो के पास पैसे कम होतेे थेे। तो जरूरतें भी उसी हिसाब से कम थी। परन्तु एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होना, जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानते थे।
लेकिन अब...
जैसे-जैसे हमारे गाँव के पुराने लोग एक-एक कर विदा लेते जा रहे हैं, वैसे-वैसे उनके साथ वो अपनापन, भाषा, परिवेश और परिधान भी मानो धीरे-धीरे मिटता जा रहा है। अब गाँवों में बहुत सारे लोग एक-दूसरे की संपत्ति, कपड़े, मकान, मोबाइल और खेती देखकर तुलनाएं करने लगे हैं। और स्नेह की जगह अब प्रतिस्पर्धा, दया की जगह दिखावा और अपनत्व की जगह — चकाचौंध में खोया हुआ आत्महित दिखाई देता है।
मेरा गाँव मझौली… आज भले ही यह एक छोटा सा गाँव हो, लेकिन ठियोग तहसील के सेब बहुल क्षेत्र में इसकी एक अलग और खास पहचान है।
पहले हमारे गाँव में सीमित संसाधन थे।
लोगों के पास ज्यादा कुछ नहीं था —
न बड़ी खेती, न कोई बड़ा व्यापार, और न ही कोई बाहरी शोहरत थी। पर जो था — वो था मेहनत, ईमानदारी, और ज़मीन से जुड़ी हुई आत्मा।
जिसको हमारे बुजुर्गों ने दिन-रात एक करके, धीरे-धीरे पहाड़ी खेतों को बगीचों में बदला। उन्होंने तंगहाली में भी सेब के पौधे रोपे, धूप, बारिश, ओलावृष्टि, हर संघर्ष सहा…और आज उन्हीं हाथों की मेहनत की वजह से मेरा गाँव मझौली, सेब उत्पादक क्षेत्रों की समृद्ध सूची में एक चमकता हुआ नाम है।

तब स्कूल का मतलब ब्रांडेड बैग, टाई, पानी की बोतल और टिफिन नहीं होता था। उस ज़माने में ज़्यादातर बच्चे एक काछु वाला बैग लेकर स्कूल जाते थे...ना उसमें कोई ब्रांड छपा होता था, ना ज़िप होती थी, ना फैंसी चेन, ना स्टाइल — उस बैग की कीमत बाज़ार में न के बराबर थी,पर हमारे जीवन में उसका मूल्य अमूल्य था। आज भले ही बच्चों के पास ब्रांडेड बैग हों, पर उस एक "काछु वाले झोले" जैसा विद्यार्थी जीवन ओर आत्मीयता शायद ही किसी बेग में हो।
मेरा पहला स्कूल बैग खाद के सफेद कट्टे से बना था, जिसमें ऊपर दो जेबें थीं। उस बैग की भी एक कहानी है।
हमारे घर में एक नेपाल मूल के व्यक्ति काम करते थे — नाम था उनका भगवान दास।
गाँव में सब उन्हें 'बगवाना मामा' कहते थे।
दिन भर खेतों में मेहनत करने वाला, सादा और ईमानदारी का जीवन जीने वाला मेहनती और लंबा व्यक्ति। खेती के हर काम में निपुणता और जी-जान से जुटे रहते का जज्बा व जनून विशेष था। पर हमारे लिए वो कोई मजदूर नहीं थे… बल्कि परिवार की तरह थे।
हमारे माता-पिता ने हमें बचपन से सिखाया था — गाँव में जो हमसे बड़े हैं, उन्हें नाम से नहीं पुकारना। हम भी किसी को मामा, किसी को बुबी (बुआ), किसी को दाई (दीदी), किसी को काकी, भइया जैसे सम्मानजनक रिश्तों से बुलाते थे।
आज हर कोई हर किसी के लिए “अंकल” और “आंटी” हो गया है, चाहे वह 25 साल का नवयुवक हो या 90 साल का वृद्ध। रिश्तों की जो शब्दावली थी — वो सिमट कर आधुनिकता के नीचे कहीं दब गई है।
पर उस समय... रिश्ते सिर्फ कहे नहीं जाते थे — जीये जाते थे। और हम भी उसी संस्कार में भगवान बहादुर को "बगवाना मामा" कहते थे। वो नाम सिर्फ संबोधन नहीं था — वो हमारे और उनके बीच के आत्मीय रिश्ते का प्रतीक।
"बगवाना मामा" के एक मित्र थे, जो खनेउ गाँव के पास रहते थे — नाम था सरिया।
वो कपड़े सिलने का काम करते थे, बहुत सरल और मिलनसार। उन्हें हम सरिया नाना कहते थे।
और जब मेरे स्कूल जाने की बारी आई —
तो बगवाना मामा ने सरिया नाना से मेरे लिए एक सफेद रंग का पक्का बैग सिलवाया था। वो बैग खाद के सफेद कट्टे से बना हुआ था, ऊपर की ओर दो सूंदर जेबें सिली हुई थीं —आज भले ही बाज़ार में ब्रांडेड बैग मिलते हो लेकिन उस खाद के कट्टे वाले बैग जैसी "ब्रांड वैल्यू" कभी किसी में नहीं दिखती है।

गाँव के और बच्चों की तरह, मैं भी अपने बड़े भाई के साथ आज स्कूल जा रहा था।
सुबह-सुबह रास्ते में और भी बच्चे मिल रहे थे, किसी के पास एक काछु वाला झोला काँधे पर डाला हुआ था,
किसी ने बैग पीठ पर लटकाता हुआ था — और सभी स्कूल की ओर जा रहे थे।
किहरी में केवल पाँचवीं तक की ही पढ़ाई होती थी।
उस समय मेरा दाखिला अभी स्कूल में नही हुआ नहीं था, किसी कारण वश एक हफ्ते बाद होना था,
लेकिन माता जी ने — मुझे बड़े भाई के साथ स्कूल भेजना शुरू कर दिया था।
मेरे उस ब्रांडेड बैग में एक किताब, स्लेट-स्लेटी, तख्ती, लकड़ी की कलम, दवात और माँ के हाथ की एक रोटी थी।
किहरी स्कूल तीन कमरों का था,
एकदम उसी शैली में जैसे हमारे पहाड़ी घर होते थे — स्कूल में कुछ बच्चे खेल रहे थे, कोई शोर मचा रहे थे, तो कोई उछल-कूद कर रहा था। सभी अपनी अपनी मस्ती में थे।
किहरी स्कूल के ठीक सामने दूर पहाड़ी ढलान पर एक छोटा सा गाँव है — कटोथ।
उस वक्त वहाँ केवल दो ही घर हुआ करते थे। दोनों ही घर सुंदर और छोटे-छोटे स्लेट की छतों वाले थे।
स्कूल के बरामदे से वो घर साफ-साफ दिखाई देते थे।
आज भी वो पल स्मृति में ताज़ा है — एक बच्चे ने देखा की उस गांव में सामने गुरु जी आ रहे हैं।
वह जोर से चिल्लाया — "गुरु जी! गुरु जी आ रहे हैं!"
देखते ही देखते पूरा स्कूल सन्नाटे में बदल गया।
भाई ने मुझे साइड के एक कमरे में बैठने के लिए बोला ...
"तुमने यहां आराम से बैठना हैं, दिन में रसेस में आऊंगा।"
इतना कह कर वो अपनी कक्षा में चले गए।
उस वक्त उस कमरे में 15-18 बच्चे एक के पीछे एक टाट पर लाइन से चुप चाप बैठे थे।
गुरु जी सामने खेल के मैदान से हमारी ओर आ रहे थे...उन्होंने कुर्ता पजामा और कोट पहना हुआ था। लंबे-चौड़े रौबदार लग रहे थे। पीठ में कोट पर अपना छाता टांगा हुआ था। हाथ में एक अखबार और एक छोटा सा पर्स जैसा बेग था।
हमारे साथ वाले कमरे में चले गए। उस कमरे के बीच में एक खिड़की थी — उसमें से इधर-उधर क्या हो रहा है, सब कुछ दिख जाता था।
एक बच्चे ने धीरे से कहा —
"क्लास स्टैंड..."
और सभी बच्चे अपनी-अपनी जगह से झट से खड़े हो गए। फिर उस कमरे से एक साथ आवाज़ आई —
“जय हिन्द!”
गुरु जी ने बच्चों को देखा, और उन्होंने भी पूरे स्नेह और गर्व के साथ कहा —
"जय हिंद!"
"उसके बाद गुरु जी के साथ सभी बच्चे खेल के मैदान की ओर आये"
पूरा स्कूल एकदम अनुशासन में आ गया। सभी बच्चे 8 से 10 लाइनों में खड़े हो गए। कोई इधर-उधर नहीं, सब सीधे – हाथ पीछे बाँधकर, निगाहें सामने।
सुबह की प्रार्थना शुरू हुई...
मैं भी उन बच्चों के साथ एक लाइन में चुपचाप खड़ा हो गया। उस पल को आज भी याद करता हूँ, तो लगता है जैसे वो सिर्फ स्कूल की प्रार्थना नहीं थी, वो अनुशासन और संस्कार की शुरुआत थी।
आधे घंटे बाद गुरुजी हमारी कक्षा में आए। फिर वही दृश्य — “क्लास स्टैंड... जय हिन्द!”
इस बार गुरुजी मुस्कुराए और ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखने लगे। धीरे-धीरे बच्चों से बातचीत शुरू की। जब मेरी बारी आई, तो उन्होंने पूछा —
"नाम क्या है?"
मैंने कहा — “नरेश।”
"कहाँ से हो?"
मैं बोला — “ऊपर।”
यह सुनकर सभी बच्चे हँस पड़े, लेकिन गुरुजी भी हँस दिए। उन्होंने न तो डांटा, न टोका — बल्कि और स्नेह से बात की।
वो पहाड़ी भाषा में भी बात करते थे, और हिंदी में भी। उनकी छवि पहले डराने वाली लगी थी, लेकिन उनके स्वभाव में इतना अपनापन था। शिक्षा के प्रति उतना ही समर्पण अद्वितीय था।
उनका नाम श्री रतिराम भारद्वाज था। वह ठियोग के पास जनोग गांव के रहने वाले थे। रोज जनोग से 8 -10 किलोमीटर पैदल चलकर किहरी स्कूल आना... फिर शाम को छुट्टी के बाद घर जाना। उनकी रोज की दिन चर्या थी।
वह दौर अनुशासन का था ... वह दौर – जहाँ सख्ती में भी स्नेह छुपा होता था।
उस समय यदि कोई बच्चा शरारत करता था, तो उसे सिर्फ टोका नहीं जाता था — अच्छी-खासी मार भी पड़ती थी।
गुरु जी की आँखों में जब क्रोध उतरता था, तो कक्षा में सन्नाटा छा जाता था। हाथ में डंडा होता था — जो सिर्फ डराने के लिए नहीं, बल्कि अनुशासन और समझ की लकीर खींचने के लिए होता था।
शरारत करने वाले बच्चों को कभी-कभी पूरे मैदान में सबके सामने खड़ा किया जाता, कभी कान खींचे जाते, कभी हाथ पर डंडा पड़ता, तो कभी मुर्गा बनाकर घंटों बिठाया जाता।
पर तब किसी को बुरा नहीं लगता था — ना बच्चों को, ना उनके माता-पिता को।
क्योंकि उस समय लोग मानते थे कि — गुरु की डांट में भी आशीर्वाद होता है। वो मार आत्मा को चोट नहीं पहुँचाती थी, बल्कि जीवन को रास्ता दिखाती थी। आज भले ही उस सख्ती को "कठोरता" कहा जाए, पर उस समय उसी सख्ती से संस्कार बनते थे।
कुछ ही दिन बाद मेरा दाखिला किहरी से हटाकर प्राथमिक पाठशाला सरिवन में करवा दिया गया। किहरी का रास्ता ढलान भरा, उतराई- चढ़ाई वाला है, लेकिन सरिवन स्कूल जाने का रास्ता एकदम सीधा और चौड़ा है। हाँ, बीच-बीच में ढँकार आता था, लेकिन उस समय बच्चों में हिम्मत भी होती थी और दिशा भी। हमारे गाँव मझौली से सरिवन स्कूल तक किसी भी बच्चे को माँ-बाप छोड़ने नहीं जाते थे। ना मोबाइल था, ना गाड़ी — बस भरोसा था, और वो भरोसा बच्चों की ज़िम्मेदारी से जुड़ा होता था। बड़े बच्चे छोटे बच्चों को साथ लेकर चलते, रास्ते भर हँसी-मज़ाक, करते हुए जाना, आपस में ही लड़ना, रूठना .. मनाना होता था।
मुझे स्कूल भेजने की जिम्मेदारी मेरे माता - पिता ने गाँव की एक बड़ी बेटी को सौंपी थी — उनका नाम था शकुंतला दीदी। वो गांव के समृद्ध व्यक्ति की बेटी है जिनको गांव में सभी "भंडारी जी" कहते थे। वो बहुत शांत, समझदार और जिम्मेदार स्वभाव की थीं। माता - पिता को पूरा भरोसा था — “अगर नरेश शकुंतला दीदी के साथ जाएगा, तो कोई शरारत नहीं करेगा।”

मैं उनके साथ स्कूल जाता, मुझे रास्ते में चलते-चलते स्कूल जाने का मन नहीं करता था। कई बार बैग फेंक देता, कभी ज़मीन पर बैठ जाता, तो कभी धीरे-धीरे चलने लगता।
पर शकुंतला दीदी कुछ नहीं कहती थीं। ना डांटतीं, ना चिल्लातीं। बस चुपचाप मेरा बैग उठातीं और हाथ से पकड़ कर स्कूल पहुंचाती, फिर स्कूल से घर । कहती — “जल्दी चल , देर हो जाएगी।”
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है — उस समय दीदी की तरह के बच्चे सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाते थे, वो पूरे गाँव के छोटे बच्चों के रक्षक होते थे।
उनकी चुप्पी में सिखाने का तरीका था, उनकी मुस्कान में शांति का पाठ था। आज की शिक्षा व्यवस्था में ये दृश्य कहीं खो गए हैं। अब माँ-बाप अपने - अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हैं, पर वो आत्मीय विश्वास, वो गाँव की सामूहिक परवरिश, वो शिष्टाचार, अब बस स्मृतियों में रह गया है।
रतिराम गुरुजी की वो एक बात... जो आज भी भीतर गूंजती है:
एक बार जब मैं पांचवी कक्षा में था, तो एक दिन सरिवन स्कूल में टूर्नामेंट चल रहे थे। कई स्कूलों के बच्चे भी खेलने आए हुए थे। कुछ बच्चों की शरारत पर गुरुजी ने डंडा उठाया और बोले –
“इसका नाम जानते हो ? इसको बुद्धि प्रकाश कहते हैं... अगर बुद्धि बिगड़ रही हो, तो बताना – ये एक मिनट में आदिमानव से मानव बनाने की ताकत रखते हैं।”
उनका रौब डांट-फटकार से नहीं, बल्कि उनके आचरण और व्यक्तित्व से था। वे कभी ऊँची आवाज़ में नहीं बोलते थे, लेकिन उनकी उपस्थिति मात्र से ही बच्चे अनुशासित हो जाते थे।
उन्होंने जो भी नैतिक बातें हमें सिखाईं, पहले स्वयं उन्हें अपने जीवन में उतारा। समय की पाबंदी, सादगी, ईमानदारी और दूसरों के प्रति सम्मान – ये सब केवल उनके शब्दों में नहीं, बल्कि उनकी दिनचर्या और व्यवहार में स्पष्ट दिखता था।
उनका जीवन ही बच्चों के लिए एक आदर्श पाठशाला था, जहाँ बिना कहे ही बहुत कुछ सीखने को मिल जाता था।

शिक्षा – तब और अब : मासूमियत से प्रतियोगिता तक का सफर
आज जब बीते दिनों की याद करता हूँ, तो मन बार-बार वहीं लौट जाता है… जहाँ शिक्षा केवल किताबों में नहीं, बल्कि संस्कारों में बसती थी।
गाँव के स्कूल में गुरुजी सिर्फ पढ़ाते नहीं थे — वो सिखाते थे जीना, बोलना, व्यवहार करना। गुरु का बच्चों से रिश्ता सिर्फ कक्षा तक सीमित नहीं था — वो घर जैसे लगते थे, और उनका स्नेह माता-पिता जैसा होता था। बच्चे भी गुरु को देख कर सावधान हो जाते थे — डर से नहीं, आदर से। हमारे शब्दों में “जय हिन्द” जैसी श्रद्धा थी, और व्यवहार में “जी गुरुजी” जैसी विनम्रता।
गाँव के बच्चे बड़े होकर भले ही अलग-अलग दिशाओं में गए, पर उन गुरुजनों की शिक्षा हर किसी के जीवन की रीढ़ बनी।
और आज? शिक्षा अब संस्कार नहीं, प्रतियोगिता की दौड़ बन गई है। बच्चे अंकों की होड़ में भाग रहे हैं — और गुरु, ‘कोचिंग’ में बदलते जा रहे हैं।
सम्मान अब “गुड मॉर्निंग” तक सीमित रह गया है, स्नेह अब डिजीटल फॉर्मेट में कैद हो गया है।
काश आज के बच्चे भी वो दिन देख पाते — जहाँ एक गुरु का डंडा नहीं, उसका आचरण ही सबसे बड़ी शिक्षा होता था

✍️..... Naresh Sharma !! संकल्प सेवा -2025 !!गाँव मेरे लिए ज़मीन नहीं, ज़िंदगी के उसूलों की किताब है।
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