डेढ़ टिकट
गाँव जाने वाली उस अंतिम बस में पांच-छह सवारों के चढ़ने के बाद पैर रखने की जगह भी नहीं थी। बस चलने पर हाथ की मूर्ति को संभाल, उन्हें संतुलन बनाने की असफल कोशिश करते देख जब कंडक्टर ने अपनी सीट खाली करते हुए कहा कि “दद्दा, आप यहां बैठ जाइए”, तो वे उस मूर्ति को पेट से सटा आराम से उस सीट पर बैठ गए।
कुछ ही मिनटों में बाल गणेश की वह प्यारी सी मूर्ति सबके कौतूहल और आकर्षण का केन्द्र बन गई। अनायास कुछ जोड़ी हाथ श्रद्धा से उस ओर जुड़ गए।
कंडक्टर पीछे के सवारियों से पैसे लेता दद्दा के सामने आ खड़ा हुआ और पूछा:
कहां जाओगे दद्दा?
जवाब देते हुए मूर्ति को थोड़ा इधर-उधर कर उन्होंने धोती की अंटी से पैसे निकालने की असफल कोशिश की।
उन्हें परेशान होता देखकर कंडक्टर ने कहा: “अभी रहने दीजिए। उतरते वक़्त दे दीजिएगा।”
एक बार फिर दद्दा गणपति की मूर्ति को पेट से सटाकर आश्वस्त होकर बैठ गए। बस अब तेजी पकड़ चुकी थी।
सबका टिकट काटकर कंडक्टर एक सीट का सहारा लेकर खड़ा हो गया और अनायास उनसे पूछ बैठा:
“दद्दा, आपके गाँव में भी तो गणेश की मूर्ति मिलती होगी न, फिर इस उम्र में दो घंटे का सफ़र और इतनी दौड़-धूप करके शहर से यह मूर्ति क्यों ले जा रहे हैं?”
प्रश्न सुनकर दद्दा मुस्कराते हुए बोले: “हां, आजकल तो त्योहार आते ही सब तरफ दुकानें सज जाती हैं, गाँव में भी मिलती हैं मूर्तियां, पर ऐसी नहीं। देखो यह कितनी प्यारी और जीवंत है।”
“पन्द्रह साल पहले काम के सिलसिले में हम दोनों इसी शहर में आए थे। गणेश पूजा का त्योहार निकट था तो मूर्ति और पूजा का सामान ख़रीदने बाज़ार गए। अचानक पत्नी की नज़र एकदम ऐसी ही एक मूर्ति पर पड़ी और उसका मातृत्व जाग उठा। ‘मेरा बच्चा’ कहते हुए उसने उस मूर्ति को सीने से लगा लिया।”
“सालों का दर्द आंखों से बह निकला, मूर्तिकार भी यह देखकर भावविह्वल हो गया और मैंने उससे हर साल इसी सांचे की हूबहू ऐसी ही मूर्ति देने का वादा ले लिया। तभी से यह सिलसिला शुरू है।”
“दो साल पहले तक वह भी साथ आती रही अपने बाल गणेश को लेने, पर अब घुटनों के दर्द से लाचार है। मेरी भी उम्र हो रही है, फिर भी सिर्फ़ दस दिन के लिए ही क्यूं न हो, उसका यह सुख नहीं छीनना चाहता, इसलिए अपने बाल गणेश को बड़े जतन से घर ले जाता हूँ।”
अब तक आसपास के लोगों में अच्छा-ख़ासा कौतूहल जाग चुका था। कुछ लोग अपनी सीट से झांककर तो कुछ उचककर मूर्ति को देख मुस्करा के हाथ जोड़ने लगे।
तभी पिछली सीट पर बैठी महिला ने चेहरा आगे की ओर कर पूछा:
“दद्दा, फिर विसर्जित नहीं करते क्या मूर्ति?”
एक दर्द भरी मुस्कान के साथ दद्दा ने कहा:
“...अभी भी रंगोली डाल, आम के तोरण से द्वार सजाकर, वहीं पर राह देखते बैठी होगी। पहुंचने पर राई और मिर्च से कड़क नज़र उतारती है। पूछो मत, छोटा-सा लोटा, गिलास, थाली, चम्मच सब हैं हमारे बाल गणेश के पास। यही नहीं रंगबिरंगे छोटे कपड़ों का एक बैग भी बना रखा है उसने।”
“इसलिए जब तक संभव होगा, उसे यह सुख देता रहूंगा।”
यह सुनकर किसी की आंखें नम हुईं तो किसी का हृदय करुणा से भर गया।
बस निर्बाध गति से आगे बढ़ रही थी और दद्दा का गाँव आने ही वाला था। उन्हें मूर्ति संभालकर खड़े होते देख पास खड़े व्यक्ति ने कहा:
“लाइए, मूर्ति मुझे दीजिए!”
तो उसके हाथों में मूर्ति को धीरे से थमाकर, धोती की अंटी से पैसे निकालकर कंडक्टर को देते हुए दद्दा ने कहा:
“लो बेटा, डेढ़ टिकट काटना।”
यह सुनकर कंडक्टर ने आश्चर्य से कहा:
“अरे आप तो अकेले आए हैं न, फिर ये डेढ़ टिकट?”
दद्दा ने मुस्कराते हुए कहा:
यह सुनते ही सब उनकी ओर आश्चर्य से देखने लगे।
लोगों के असमंजस को दूर करते हुए उन्होंने फिर कहा:
“अरे उलझन में क्यों पड़े हो सब! जिसे देखकर सभी का भाव जागा वह क्या केवल मूर्ति है? जिसे भगवान मनाते हैं, प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं वह क्या केवल मिट्टी है? अरे हमसे ज्यादा जीवंत है वह...”
“...हम भले ही उसे भगवान मान उससे हर चीज़ मांग लेते हैं, पर उसे तो हमारा प्यार और आलिंगन ही चाहिए।”
यह कहते हुए दद्दा का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया।
उनकी बातों को मंत्रमुग्ध होकर सुनते कंडक्टर सहित सहयात्री करुणा और वात्सल्य के इस अनोखे सागर में गोते लगा रहे थे कि उनका गाँव आ गया और एक झटके से बस रुक गई।
कंडक्टर ने डेढ़ टिकट के पैसे काटकर बचे पैसे और टिकट उन्हें थमाकर आदर से दरवाजा खोला।
नीचे उतरकर दद्दा ने जब अपने बाल गणेश को थामने उस यात्री की ओर हाथ बढ़ाए तो कंडक्टर सहित सबके मुंह से अनायास निकला:
“देखिए दद्दा, संभाल के।”
और दद्दा किसी नन्हे शिशु की तरह उस मूर्ति को दोनों बाहों में थाम तेज़ क़दमों से पगडंडी पर उतर गए।
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