महाराणा प्रताप जयंती

Sankalp Seva
By -
0

महाराणा प्रताप जयंती 29 मई 2025 को क्यों मनाई जा रही है? जबकि उनका जन्म 09 मई 1540 को हुआ था।

Designer Image

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को जूलियन कैलेंडर के अनुसार हुआ था, जो कुम्भलगढ़, राजस्थान में हुआ। हालांकि, ग्रेगोरियन कैलेंडर में यह तारीख 19 मई 1540 के रूप में समायोजित होती है, क्योंकि जूलियन कैलेंडर को बाद में ग्रेगोरियन कैलेंडर ने प्रतिस्थापित कर दिया। फिर भी, महाराणा प्रताप जयंती को हिंदू पंचांग के अनुसार मनाया जाता है, न कि पश्चिमी कैलेंडर के अनुसार। हिंदू पंचांग के अनुसार, उनका जन्म ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि, विक्रम संवत 1597 को हुआ था।

2025 में यह तिथि:

  • ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया 2025 में 29 मई को पड़ रही है। इस दिन तृतीया तिथि 28 मई 2025 को रात 11:54 बजे शुरू होगी और 29 मई 2025 को रात 9:18 बजे समाप्त होगी।
  • 2025 में, यह उनकी 485वीं जन्म जयंती होगी, जो उनके साहस और देशभक्ति को याद करने का अवसर है।
  • भारत में, विशेष रूप से राजस्थान, हरियाणा, और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्वों की जयंतियाँ हिंदू पंचांग (विक्रम संवत) के आधार पर मनाई जाती हैं। यह परंपरा सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व को बनाए रखती है।

महाराणा प्रताप का जीवन चरित्र

महाराणा प्रताप, भारतीय इतिहास के एक महान नायक, वीर योद्धा और स्वाभिमान के प्रतीक थे। उनका जीवन स्वतंत्रता, साहस, और आत्मसम्मान की एक अनुपम गाथा है। मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के इस महान शासक ने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, फिर भी उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों और स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नहीं छोड़ा। "महाराणा प्रताप" का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता, महाराणा उदय सिंह द्वितीय, मेवाड़ के शासक थे, और उनकी माता, रानी जयवंता बाई, एक धार्मिक और साहसी महिला थीं। सिसोदिया राजवंश के 13वें राणा के रूप में, प्रताप का जन्म उस समय हुआ जब मेवाड़ एक शक्तिशाली और गौरवशाली रियासत थी। मेवाड़, जो अपनी वीरता और स्वतंत्रता के लिए प्रसिद्ध था, उस समय मुगल सम्राट अकबर के बढ़ते प्रभाव के कारण कई चुनौतियों का सामना कर रहा था।

प्रताप का बचपन राजसी वातावरण में बीता। कुम्भलगढ़ दुर्ग, जो पहाड़ों से घिरा हुआ था, उनके प्रारंभिक जीवन का केंद्र रहा। उन्हें कम उम्र में ही युद्ध कला, घुड़सवारी, तलवारबाजी, और धनुर्विद्या में प्रशिक्षित किया गया। उनके गुरुओं ने उन्हें न केवल युद्ध कौशल सिखाया, बल्कि राजपूत परंपराओं, धर्म, और नैतिकता के मूल्यों से भी परिचित कराया। प्रताप की शिक्षा में विशेष जोर इस बात पर था कि एक शासक को अपनी प्रजा के प्रति निष्ठा और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण रखना चाहिए।

एक प्रसिद्ध कहानी के अनुसार, जब प्रताप मात्र 12 वर्ष के थे, तब उन्होंने एक जंगली शेर का सामना किया। अपनी छोटी सी उम्र में भी, उन्होंने साहस और बुद्धिमत्ता से शेर को भगा दिया, जो उनकी निर्भीकता और नेतृत्व क्षमता का प्रतीक बन गया। इस घटना ने मेवाड़ की जनता में उनके प्रति विश्वास और सम्मान को और बढ़ा दिया।

प्रताप के बचपन में उनके पिता उदय सिंह के साथ उनके संबंध जटिल थे। उदय सिंह ने अपनी दूसरी पत्नी धीरबाई के पुत्र जगमाल को सिंहासन का उत्तराधिकारी बनाना चाहा, लेकिन मेवाड़ के सामंतों और प्रजा ने प्रताप के साहस और योग्यता को देखते हुए उन्हें ही राणा के रूप में चुना। यह निर्णय उनके जीवन की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ।

“स्वतंत्रता मेरे लिए जीवन से भी बढ़कर है।”

 उत्तराधिकारी और मुगल चुनौती

1568 में उदय सिंह की मृत्यु के बाद, प्रताप 28 वर्ष की आयु में मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। यह वह समय था जब मुगल सम्राट अकबर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों को अपने अधीन करने में लगा था। अकबर ने कई राजपूत रियासतों, जैसे आमेर, बीकानेर, और जैसलमेर, को अपनी अधीनता में ले लिया था। इन रियासतों ने अकबर के साथ गठबंधन कर लिया था, लेकिन प्रताप ने स्पष्ट रूप से अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

प्रताप का यह निर्णय उनके दृढ़ संकल्प और स्वतंत्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उन्होंने माना कि मेवाड़ का गौरव और स्वाभिमान किसी भी कीमत पर बिकाऊ नहीं है। उनके इस रुख ने उन्हें अन्य राजपूत शासकों से अलग किया, जो अकबर के साथ समझौता कर चुके थे। प्रताप ने अपनी सेना को संगठित करना शुरू किया और भिल्ल, मीणा, और अन्य स्थानीय जनजातियों के साथ मजबूत गठबंधन बनाया।

मेवाड़ की भौगोलिक स्थिति, जो अरावली पहाड़ियों से घिरी थी, ने प्रताप को रणनीतिक लाभ प्रदान किया। उन्होंने इन पहाड़ियों का उपयोग अपनी सेना को प्रशिक्षित करने और युद्ध की रणनीतियाँ तैयार करने में किया। उनके नेतृत्व ने मेवाड़ की जनता और सैनिकों में एक नया जोश भरा। प्रताप ने अपने सामंतों और सैनिकों को यह विश्वास दिलाया कि स्वतंत्रता के लिए लड़ना ही उनका धर्म है।

इस दौरान, अकबर ने कई बार प्रताप को समझौते के लिए दूत भेजे। इन दूतों में अब्दुर रहीम खान-ए-खाना जैसे लोग शामिल थे, जो प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए मनाने आए। लेकिन प्रताप ने हर बार दृढ़ता से इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। उनकी इस अटलता ने अकबर को यह समझा दिया कि मेवाड़ को जीतना आसान नहीं होगा।

हल्दीघाटी का युद्ध

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, जो भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक युद्ध माना जाता है। यह युद्ध मेवाड़ और मुगल सेना के बीच हुआ, जिसमें मुगल सेना का नेतृत्व मान सिंह और आसफ खान कर रहे थे। मान सिंह, आमेर के राजपूत शासक, अकबर के विश्वसनीय सहयोगी थे, और उनकी सेना में 80,000 सैनिक थे। इसके विपरीत, प्रताप की सेना में केवल 20,000 सैनिक थे, जिनमें भिल्ल और अन्य जनजातियों के योद्धा शामिल थे।

हल्दीघाटी का युद्ध अरावली पहाड़ियों के एक संकरे दर्रे में लड़ा गया, जो प्रताप की गुरिल्ला रणनीतियों के लिए उपयुक्त था। उन्होंने अपनी सेना को छोटे-छोटे दलों में बाँटकर मुगल सेना पर आश्चर्यजनक हमले किए। युद्ध के दौरान, प्रताप ने स्वयं युद्धभूमि में उतरकर अपनी वीरता का परिचय दिया। एक समय तो वे मान सिंह के रथ तक पहुँच गए थे, लेकिन मान सिंह की जान बच गई।

इस युद्ध में प्रताप के विश्वसनीय घोड़े चेतक ने उनकी जान बचाई। एक प्रसिद्ध घटना में, जब प्रताप मुगल सेना से घिर गए थे, चेतक ने एक नदी के ऊपर विशाल छलांग लगाकर उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। लेकिन इस प्रक्रिया में चेतक गंभीर रूप से घायल हो गया और उसने प्राण त्याग दिए। चेतक की वफादारी और बलिदान की कहानी आज भी भारतीय इतिहास में अमर है।

हल्दीघाटी का युद्ध तकनीकी रूप से मुगल सेना की जीत माना जाता है, क्योंकि उन्होंने युद्धक्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। लेकिन प्रताप ने अपनी रणनीति और साहस से मुगल सेना को भारी नुकसान पहुँचाया। युद्ध के बाद, मेवाड़ पूरी तरह मुगल नियंत्रण में नहीं आया, और प्रताप ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी।

इस युद्ध में भिल्ल योद्धा पुनजा और अन्य सहयोगियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुनजा ने अपनी छोटी सेना के साथ मुगल सेना को विचलित किया, जिससे प्रताप को रणनीति लागू करने का समय मिला। लेकिन यह युद्ध प्रताप की वीरता और दृढ़ संकल्प का प्रतीक बना। उन्होंने मुगल सेना को भारी नुकसान पहुँचाया और यह साबित कर दिया कि मेवाड़ को जीतना आसान नहीं है। इस युद्ध के बाद अकबर ने कई बार मेवाड़ पर हमला किया, लेकिन प्रताप ने कभी हार नहीं मानी।


“हल्दीघाटी में हमारी हार नहीं हुई, क्योंकि हमने अपने स्वाभिमान को जीवित रखा।”

जंगल जीवन: संघर्ष

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, प्रताप को अपनी राजधानी चित्तौड़ छोड़कर अरावली के जंगलों में शरण लेनी पड़ी। यह उनके जीवन का सबसे कठिन समय था। उनके पास न तो पर्याप्त संसाधन थे, न ही बड़ी सेना। फिर भी, उन्होंने हार नहीं मानी और गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई।

जंगल जीवन के दौरान, प्रताप और उनके परिवार को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कई बार उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होता था। एक प्रसिद्ध कहानी के अनुसार, एक बार उनके बच्चे भूख से तड़प रहे थे, और उनके पास केवल घास की रोटियाँ थीं। इस दौरान, भिल्ल जनजाति ने उनकी मदद की। भिल्ल योद्धाओं ने न केवल भोजन और आश्रय प्रदान किया, बल्कि युद्ध में भी उनका साथ दिया।

प्रताप ने अरावली की पहाड़ियों को अपनी ताकत बनाया। उन्होंने जंगलों और गुफाओं में छिपकर मुगल सेना पर आश्चर्यजनक हमले किए। उनकी गुरिल्ला रणनीति ने मुगल सेना को मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में उनका पीछा करने में कठिनाई पैदा की। इस दौरान, उन्होंने अपनी सेना को छोटे-छोटे दलों में बाँटकर मुगल चौकियों पर हमले किए, जिससे अकबर की सेना को भारी नुकसान हुआ।

इस कठिन समय में, प्रताप की पत्नी महारानी अजबदे पुनवर ने भी उनका साथ दिया। अजबदे ने न केवल उनके परिवार को संभाला, बल्कि उनकी सेना को प्रेरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व और धैर्य ने प्रताप को इस कठिन दौर में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी।

जंगल जीवन ने प्रताप के चरित्र को और निखारा। उन्होंने अपनी प्रजा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी नहीं छोड़ा। उनकी यह अटलता और समर्पण मेवाड़ की जनता के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी।

परिवार और व्यक्तिगत जीवन

महाराणा प्रताप का व्यक्तिगत जीवन भी उनकी वीरता और समर्पण का प्रतीक था। प्रताप ने अपने बच्चों को स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के मूल्य सिखाए। उनके परिवार ने जंगल जीवन की कठिनाइयों को सहन किया और कभी हार नहीं मानी। उनकी पत्नियों और बच्चों ने भी मेवाड़ की स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान दिया। उदाहरण के लिए, उनकी पुत्रियों ने सामाजिक कार्यों और प्रजा की मदद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रताप का अपने परिवार के प्रति प्रेम और जिम्मेदारी उनके शासनकाल में स्पष्ट थी। उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तिगत जीवन को अपनी प्रजा की भलाई से ऊपर नहीं रखा। उनकी यह निष्ठा ने उन्हें एक आदर्श शासक बनाया।

मेवाड़ की पुनर्स्थापना

1582 तक, प्रताप ने अपनी रणनीतियों और जनजातियों के सहयोग से मेवाड़ के कई हिस्सों को मुगल नियंत्रण से मुक्त करा लिया। उन्होंने कुम्भलगढ़ और उदयपुर पर पुनः कब्जा किया। उनकी रणनीति में स्थानीय जनजातियों, विशेष रूप से भिल्ल और मीणा, का सहयोग महत्वपूर्ण था।

प्रताप ने अपनी सेना को पुनर्गठित किया और मुगल चौकियों पर लगातार हमले किए। उनकी गुरिल्ला रणनीति ने मुगल सेना को मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में कमजोर कर दिया। इस दौरान, उन्होंने अपनी प्रजा के कल्याण के लिए भी कई कदम उठाए, जैसे खेती और व्यापार को बढ़ावा देना।

उनके शासनकाल में, मेवाड़ की जनता ने उन्हें एक पिता तुल्य शासक माना। उन्होंने अपनी प्रजा के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखा और उनके दुख-दर्द में शामिल रहे। उनकी यह नीति ने मेवाड़ को एकजुट और शक्तिशाली बनाए रखा। उन्होंने मेवाड़ में कृषि, व्यापार, और स्थानीय शासन को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल में मेवाड़ की जनता ने उन्हें एक पिता तुल्य शासक माना। 

मृत्यु और अमर विरासत

महाराणा प्रताप की मृत्यु 19 जनवरी 1597 को चावंड में एक शिकार के दौरान लगी चोट के कारण हुई। उनकी मृत्यु ने मेवाड़ की जनता को गहरा आघात पहुँचाया, लेकिन उनकी वीरता और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की कहानियाँ जीवित रहीं।

प्रताप की विरासत आज भी भारत में प्रेरणा का स्रोत है। उनकी कहानी किताबों, कविताओं, और फिल्मों में जीवित है। उदयपुर में उनकी विशाल मूर्ति, जिसमें वे चेतक पर सवार हैं, एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। उनकी वीरता और साहस की कहानियाँ स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं और युवा पीढ़ी को प्रेरित करती हैं।

महाराणा प्रताप ने यह साबित किया कि सच्चा साहस और स्वतंत्रता का जुनून किसी भी कठिनाई को पार कर सकता है। उनकी कहानी न केवल मेवाड़ के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व का विषय है।

“महाराणा प्रताप का नाम स्वतंत्रता और साहस का पर्याय है।”

सांस्कृतिक प्रभाव और आधुनिक प्रासंगिकता

महाराणा प्रताप की कहानी आज भी भारत में लोकप्रिय है। उनके जीवन पर कई किताबें, कविताएँ, और गीत लिखे गए हैं। राजस्थान में उनके नाम पर कई स्मारक और मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। उदयपुर में उनकी एक विशाल मूर्ति, जिसमें वे अपने घोड़े चेतक पर सवार हैं, पर्यटकों और स्थानीय लोगों के लिए एक प्रेरणा स्थल है। उनकी वीरता और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण ने उन्हें एक राष्ट्रीय नायक बनाया है। उनके जीवन पर आधारित कई किताबें, जैसे ‘महाराणा प्रताप: द इनविन्सिबल वॉरियर’ और ‘हल्दीघाटी का युद्ध’, प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा, टेलीविजन धारावाहिक और फिल्में, जैसे ‘भारत का वीर पुत्र - महाराणा प्रताप’, ने उनकी कहानी को जन-जन तक पहुँचाया है।

उदयपुर में स्थापित उनकी विशाल मूर्ति, जिसमें वे चेतक पर सवार हैं, एक प्रेरणा स्थल है। यह मूर्ति न केवल पर्यटकों को आकर्षित करती है, बल्कि यह भी याद दिलाती है कि साहस और स्वाभिमान किसी भी कठिनाई को पार कर सकते हैं।

महाराणा प्रताप का जीवन एक ऐसी गाथा है जो हर भारतीय को गर्व और प्रेरणा से भर देती है। उन्होंने अपने जीवन में असंख्य कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनकी वीरता, स्वतंत्रता के प्रति समर्पण, और अपने लोगों के प्रति प्रेम ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया। आज भी, जब हम उनके जीवन की कहानियाँ सुनते हैं, हमें यह एहसास होता है कि सच्चा साहस और आत्मसम्मान किसी भी परिस्थिति में डगमगाता नहीं है। महाराणा प्रताप न केवल मेवाड़ के, बल्कि पूरे भारत के गौरव हैं।

              © 2025 Naresh Sharma – Sankalpseva.org || महाराणा का जीवन चरित्र: स्वतंत्रता का प्रतीक ||

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

आपका विचार हमारे लिए महत्वपूर्ण है। कृपया संयमित भाषा में कमेंट करें।

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Out
Ok, Go it!